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श्री वाल्मीकि रामायण: सम्पूर्ण किष्किंधाकाण्ड

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किष्किन्धा काण्ड वाल्मीकि द्वारा रचित प्रसिद्ध हिन्दू ग्रंथ रामायण‘ और गोस्वामी तुलसीदास कृत श्रीरामचरितमानस‘ का एक भाग (काण्ड या सोपान) है।

किष्किंधाकाण्ड सर्ग तथा श्लोक

किष्किन्धा काण्ड में पम्पासरोवर पर स्थित राम से हनुमान का मिलनसुग्रीव से मित्रतासुग्रीव द्वारा बालि का वृत्तान्त-कथनसीता की खोज के लिए सुग्रीव की प्रतिज्ञाबालि-सुग्रीव युद्धराम के द्वारा बालि का वधसुग्रीव का राज्याभिषेक तथा बालिपुत्र अंगद को युवराज पदवर्षा ऋतु वर्णनशरद ऋतु वर्णनसुग्रीव तथा हनुमान के द्वारा वानर सेना का संगठनसीतान्वेषण हेतु चारों दिशाओं में वानरों का गमनहनुमान का लंका गमनसम्पाति वृत्तान्तजामवन्त का हनुमान को समुद्र-लंघन हेतु प्रेरित करना तथा हनुमान जी का महेन्द्र पर्वत पर आरोहण आदि विषयों का प्रतिपादन किया गया है। किष्किन्धाकाण्ड में 67 सर्ग तथा 2,455 श्लोक हैं। धार्मिक दृष्टि से इस काण्ड का पाठ मित्रलाभ तथा नष्टद्रव्य की खोज हेतु करना उचित है-

किष्किंधाकाण्ड संक्षिप्त कथा

राम-सुग्रीव मित्रता

नारद जी कहते हैं- श्रीरामचन्द्र जी पम्पा सरोवर पर जाकर सीता के लिये शोक करने लगे। वहाँ वे शबरी से मिले। फिर हनुमान से उनकी भेंट हुई। हनुमान उन्हें सुग्रीव के पास ले गये और सुग्रीव के साथ उनकी मित्रता करायी। श्रीरामचन्द्र ने सबके देखते-देखते ताड़ के सात वृक्षों को एक ही बाण से बींध डाला और दुन्दुभि नामक दानव के विशाल शरीर को पैर की ठोकर से दस योजन दूर फेंक दिया। इसके बाद सुग्रीव के शत्रु बाली कोजो भाई होते हुए भी उनके साथ वैर रखता थामार डाला और किष्किन्धापुरीवानरों का साम्राज्यरूमा एवं ताराइन सबको ऋष्यमूक पर्वत पर वानर राज सुग्रीव के अधीन कर दिया।

सुग्रीव ने कहा- “श्रीराम! आपको सीता जी की प्राप्ति जिस प्रकार भी हो सकेऐसा उपाय मैं कर रहा हूँ।” यह सुनने के बाद श्रीरामचन्द्र ने माल्यवान पर्वत के शिखर पर वर्षा के चार महीने व्यतीत किये और सुग्रीव किष्किन्धा में रहने लगे।

सीता की खोज हेतु सुग्रीव का वानरों का भेजना

चौमासे के बाद भी जब सुग्रीव दिखायी नहीं दियेतब श्रीरामचन्द्र की आज्ञा से लक्ष्मण ने किष्किन्धा में जाकर कहा- “सुग्रीव! तुम श्रीरामचन्द्र के पास चलो। अपनी प्रतिज्ञा पर अटल रहोनहीं तो बाली मर-कर जिस मार्ग से गया हैवह मार्ग अभी बंद नहीं हुआ है। अतएव वाली के पथ का अनुसरण न करो।”

सुग्रीव ने कहा- “सुमित्रानन्दन! विषयभोग में आसक्त हो जाने के कारण मुझे बीते हुए समय का भान न रहाअत: मेरे अपराध को क्षमा कीजिये।”

ऐसा कहकर वानर राज सुग्रीव श्रीरामचन्द्र के पास गये और उन्हें नमस्कार करके बोले- “भगवान! मैंने सब वानरों को बुला लिया है। अब आपकी इच्छा के अनुसार सीता जी की खोज करने के लिये उन्हें भेजूँगा। वे पूर्वादि दिशाओं में जाकर एक महीने तक सीता जी की खोज करें। जो एक महीने के बाद लौटेगाउसे मैं मार डालूँगा।”

वानरों की सम्पाति से भेंट

वानरराज सुग्रीव की बात सुनकर बहुत-से वानर पूर्वपश्चिम और उत्तर दिशाओं के मार्ग पर चल पड़े तथा वहाँ जनक कुमारी सीता को न पाकर नियत समय के भीतर श्रीराम और सुग्रीव के पास लौट आये। हनुमान श्रीरामचन्द्र की दी हुई अँगूठी लेकर अन्य वानरों के साथ दक्षिण दिशा में जानकी की खोज कर रहे थे। वे लोग सुप्रभा की गुफ़ा के निकट विन्ध्यपर्वत पर ही एक मास से अधिक काल तक ढूँढ़ते फिरेकिंतु उन्हें सीता जी का दर्शन नहीं हुआ। अन्त में निराश होकर आपस में कहने लगे- “हम लोगों को व्यर्थ ही प्राण देने पड़ेंगे। धन्य है वह जटायुजिसने सीता के लिये रावण के द्वारा मारा जाकर युद्ध में प्राण त्याग दिया था।”

उनकी ये बातें सम्पाति नामक गृध्र के कानों में पड़ीं। वह वानरों के (प्राण त्याग की चर्चा से उनके) खाने की ताक में लगा था। किंतु जटायु की चर्चा सुनकर रूक गया और बोला- “वानरो! जटायु मेरा भाई था। वह मेरे ही साथ सूर्य मण्डल की ओर उड़ा चला जा रहा था। मैंने अपनी पाँखों की ओट में रखकर सूर्य की प्रखर किरणों के ताप से उसे बचाया। अत: वह तो सकुशल बच गयाकिंन्तु मेरी पाँखें चल गयींइसलिये मैं यहीं गिर पड़ा। आज श्रीरामचन्द्र की वार्ता सुनने से फिर मेरे पंख निकल आये। अब मैं जानकी को देखता हूँवे लंका में अशोक वाटिका के भीतर हैं। लवण समुद्र के द्वीप में त्रिकूट पर्वत पर लंका बसी हुई है। यहाँ से वहाँ तक का समुद्र सौ योजन विस्तृत है। यह जान कर सब वानर श्रीराम और सुग्रीव के पास जायें और उन्हें सब समाचार बता दें।”


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