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श्री वाल्मीकि रामायण: सम्पूर्ण अरण्यकाण्ड

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अरण्यकाण्ड वाल्मीकि द्वारा रचित प्रसिद्ध हिन्दू ग्रंथ रामायण‘ और गोस्वामी तुलसीदास कृत श्रीरामचरितमानस‘ का एक भाग (काण्ड या सोपान) है। अरण्यकाण्ड में 75 सर्ग हैं, जिनमें 2,440 श्लोक गणना से प्राप्त होते हैं।

अरण्यकाण्ड सर्ग तथा श्लोक

अरण्यकाण्ड में रामसीता तथा लक्ष्मण दण्डकारण्य में प्रवेश करते हैं। जंगल में तपस्वी जनोंमुनियों तथा ऋषियों के आश्रम में विचरण करते हुए राम उनकी करुण-गाथा सुनते हैं। मुनियों आदि को राक्षसों का भी भीषण भय रहता है। इसके पश्चात राम पञ्चवटी में आकर आश्रम में रहते हैंवहीं शूर्पणखा से मिलन होता है। शूर्पणखा के प्रसंग में उसका नाक-कान विहीन करना तथा उसके भाई खर दूषण तथा त्रिशिरा से युद्ध और उनका संहार वर्णित है। इसके बाद शूर्पणखा लंका जाकर रावण से अपना वृतान्त कहती है और अप्रतिम सुन्दरी सीता के सौन्दर्य का वर्णन करके उन्हें अपहरण करने की प्रेरणा देती है। रावण-मारीच संवादमारीच का स्वर्णमयकपटमृग बननामारीच वधसीता का रावण द्वारा अपहरणसीता को छुड़ाने के लिए जटायु का युद्धगृध्रराज जटायु का रावण के द्वारा घायल किया जानाअशोकवाटिका में सीता को रखनाश्रीराम का विलापसीता का अन्वेषणराम-जटायु-संवाद तथा जटायु को मोक्ष प्राप्तिकबन्ध की आत्मकथाउसका वध तथा दिव्यरूप प्राप्तिशबरी के आश्रम में राम का गमनऋष्यमूक पर्वत तथा पम्पा सरोवर के तट पर राम का गमन आदि प्रसंग अरण्यकाण्ड में उल्लिखित हैं। बृहद्धर्मपुराण‘ के अनुसार इस काण्ड का पाठ उसे करना चाहिए जो वनराजकुलअग्नि तथा जलपीड़ा से युक्त हो। इसके पाठ से अवश्य मंगल प्राप्ति होती है-

अरण्यकाण्ड संक्षिप्त कथा

नारद जी कहते हैं- मुने! श्रीरामचन्द्र ने महर्षि वसिष्ठ तथा माताओं को प्रणाम करके उन सबको भरत के साथ विदा कर दिया। तत्पश्चात महर्षि अत्रि तथा उनकी पत्नी अनुसूया कोशरभंग मुनि कोसुतीक्ष्ण को तथा अगस्त्य के भ्राता अग्निजिह्व मुनि को प्रणाम करते हुए श्रीरामचन्द्र ने अगस्त्य मुनि के आश्रम पर जा उनके चरणों में मस्तक झुकाया और मुनि की कृपा से दिव्य धनुष एवं दिव्य खड्ग प्राप्त करके वे दण्डकारण्य में आये। वहाँ जनस्थान के भीतर पंचवटी नामक स्थान में गोदावरी के तट पर रहने लगे।

शूर्पणखा के नाक-कान काटना

एक दिन शूर्पणखा नाम वाली भयंकर राक्षसी रामलक्ष्मण और सीता को खा जाने के लिये पंचवटी में आयीकिंतु श्रीरामचन्द्र का अत्यन्त मनोहर रूप देखकर वह काम के अधीन हो गयी और बोली- “तुम कौन होकहाँ से आये होमेरी प्रार्थना से अब तुम मेरे पति हो जाओ। यदि मेरे साथ तुम्हारा सम्बन्ध होने में ये दोनों सीता और लक्ष्मण बाधक हैं तो मैं इन दोनों को अभी खाये लेती हूँ।” ऐसा कहकर वह उन्हें खा जाने को तैयार हो गयी। तब श्रीरामचन्द्र के कहने से लक्ष्मण ने शूर्पणखा की नाक और दोनों कान भी काट लिये। कटे हुए अंगों से रक्त की धारा बहाती हुए शूर्पणखा अपने भाई खर के पास गयी और इस प्रकार बोली- “खर! मेरी नाक कट गयी। इस अपमान के बाद मैं जीवित नहीं रह सकती। अब तो मेरा जीवन तभी रह सकता हैजब कि तुम मुझे राम काउनकी पत्नी सीता का तथा उनके छोटे भाई लक्ष्मण का गरम-गरम रक्त पिलाओ।”

राम द्वारा खर-दूषण की पराजय

खर ने उसको बहुत अच्छा‘ कहकर शान्त किया और दूषण तथा त्रिशिरा के साथ चौदह हज़ार राक्षसों की सेना ले श्रीरामचन्द्र पर चढ़ाई की। श्रीराम ने भी उन सबका सामना किया और अपने बाणों से राक्षसों को बींधना आरम्भ किया। शत्रुओं की हाथीघोड़ेरथ और पैदल सहित समस्त चतुरंगिणी सेना को उन्होंने यमलोक पहुँचा दिया तथा अपने साथ युद्ध करने वाले भयंकर राक्षस खर दूषण एवं त्रिशिरा को भी मौत के घाट उतार दिया। अब शूर्पणखा लंका में गयी और रावण के सामने जा पृथ्वी पर गिर पड़ी। उसने क्रोध में भरकर रावण से कहा- “अरे! तू राजा और रक्षक कहलाने योग्य नहीं है। खर आदि समस्त राक्षसों को संहार करने वाले राम की पत्नी सीता को हर ले। मैं राम और लक्ष्मण का रक्त पीकर ही जीवित रहूँगीअन्यथा नहीं।”

रावण द्वारा सीताहरण

शूर्पणखा की बात सुनकर रावण ने कहा- “अच्छाऐसा ही होगा।” फिर उसने मारीच से कहा- “तुम स्वर्णमय विचित्र मृग का रूप धारण करके सीता के सामने जाओ और राम तथा लक्ष्मण को अपने पीछे आश्रम से दूर हटा ले जाओ। मैं सीता का हरण करूँगा। यदि मेरी बात न मानोगेतो तुम्हारी मृत्यु निश्चित है।”

मारीच ने रावण से कहा- “रावण! धनुर्धन राम साक्षात मृत्यु हैं।” फिर उसने मन-ही-मन सोचा- “यदि नहीं जाऊँगातो रावण के हाथ से मरूंगा। इस प्रकार यदि मरना अनिवार्य है तो इसके लिये श्रीराम ही श्रेष्ठ हैंरावण नहीं”, (क्योंकि श्रीराम के हाथ से मृत्यु होने पर मेरी मुक्ति हो जायेगी) ऐसा विचार कर वह मृग रूप धारण करके सीता के सामने बार-बार आने-जाने लगा। तब सीता की प्रेरणा से श्रीराम ने दूर तक उसका पीछा करके उसे अपने बाण से मार डाला। मरते समय उस मृग ने हा सीते! हा लक्ष्मण!‘ कहकर पुकार लगायी। उस समय सीता के कहने से लक्ष्मण अपनी इच्छा के विरुद्ध श्रीरामचन्द्र के पीछे गये। इसी बीच में रावण ने भी मौक़ा पाकर सीता को हर लिया। मार्ग में जाते समय उसने गृध्रराज जटायु का वध किया। जटायु ने भी उसके रथ को नष्ट कर डाला था। रथ न रहने पर रावण ने सीता को कंधे पर बिठा लिया और उन्हें लंका में ले जाकर अशोक वाटिका में रखा। वहाँ सीता से बोला- “तुम मेरी पटरानी बन जाओ।” फिर राक्षसियों की ओर देखकर कहा- “निशाचरियो! इसकी रखवाली करो।”

राम-लक्ष्मण द्वारा सीता की खोज

उधर श्री रामचन्द्र जब मारीच को मारकर लौटेतो लक्ष्मण को आते देख बोले- “सुमित्रानन्दन! वह मृग तो मायामय था- वास्तव में वह एक राक्षस थाकिंतु तुम जो इस समय यहाँ आ गयेइससे जान पड़ता हैनिश्चय ही कोई सीता को हर ले गया।” श्रीरामचन्द्र आश्रम पर गयेकिंतु वहाँ सीता नहीं दिखायी दीं। उस समय वे आर्त होकर शोक और विलाप करने लगे- “हा प्रिये जानकी! तू मुझे छोड़कर कहाँ चली गयी?” लक्ष्मण ने श्रीराम को सांत्वना दी। तब वे वन में घूम-घूमकर सीता की खोज करने लगे। इसी समय इनकी जटायु से भेंट हुई। जटायु ने यह कहकर कि “सीता को रावण हर ले गया है” प्राण त्याग दिया। तब श्रीरघुनाथ ने अपने हाथ से जटायु का दाह संस्कार किया। इसके बाद इन्होंने कबन्ध का वध किया। कबन्ध ने शाप मुक्त होने पर श्रीरामचन्द्र से कहा “आप सुग्रीव से मिलिये।”


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