निर्वाण षट्कम्: शुद्ध आत्मा की पुकार
शिवोऽहम् शिवोऽहम् – मोक्ष का अद्वैत मंत्र
“निर्वाण षट्कम्” (Nirvana Shatakam), जिसे “आत्म षट्कम्” भी कहा जाता है, महान अद्वैत वेदांत गुरु आदि शंकराचार्य द्वारा रचित एक अत्यंत गूढ़ और आध्यात्मिक ग्रंथ है। इस रचना में आत्मा और ब्रह्म के अद्वैत स्वरूप का वर्णन किया गया है। यह केवल छह श्लोकों की छोटी-सी कविता है, लेकिन इसकी गहराई में सम्पूर्ण वेदांत समाया हुआ है।
भारत की आध्यात्मिक परंपरा में आत्म-ज्ञान (Self-Realization) को सर्वोच्च ज्ञान माना गया है। “निर्वाण षट्कम्” उस आत्मज्ञान की सरल परंतु अत्यंत गूढ़ व्याख्या है, जिसे केवल छः श्लोकों में समाहित किया गया है। यह श्लोक न केवल अद्वैत वेदांत का सार है, बल्कि यह अहंकार, द्वंद्व, मृत्यु और बंधन से मुक्ति की सीढ़ी भी है।
निर्वाण षट्कम्” की रचना आदि शंकराचार्य ने बहुत ही कम उम्र में की थी, जब वे केवल आठ वर्ष के थे।
कहा जाता है कि जब आदि शंकराचार्य मात्र आठ वर्ष के थे, तब वे हिमालय की यात्रा पर निकले। वहां उन्हें एक गुरु के रूप में श्री गोविंदपादाचार्य मिले। जब गुरु ने पूछा, “तुम कौन हो?” — तब बालक शंकर ने उत्तर में यह छह श्लोक कहे, जो बाद में “निर्वाण षट्कम्” के रूप में प्रसिद्ध हुए। इन श्लोकों के माध्यम से उन्होंने बताया कि वे न शरीर हैं, न मन, न बुद्धि; वे तो शुद्ध आत्मा हैं — ‘चिदानंद रूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम्’। शंकराचार्य ने शरीर, इंद्रियों, गुणों, कर्म और अहंकार से इंकार करते हुए स्वयं को चिदानन्द (चैतन्य+आनन्द) बताया
यह उत्तर केवल बालक की प्रतिभा नहीं, बल्कि उस ब्रह्मज्ञान की पुष्टि थी, जो जीवन के रहस्य को जान चुका था। यही श्लोक आगे चलकर “निर्वाण षट्कम्” के नाम से प्रसिद्ध हुए।
निर्वाण षट्कम् के श्लोक और हिंदी अर्थ
“षट्कम्” का अर्थ
“षट्कम्” का अर्थ है — छह (6)। यह स्तोत्र छः श्लोकों का संग्रह है, जिसमें हर श्लोक आत्मा की पहचान से जुड़ी परतों को हटाते हुए अंत में शिव (ब्रह्म) से उसकी एकता को उद्घाटित करता है।
श्लोक 1:
मनो बुद्ध्यहंकार चित्तानि नाहं
न च श्रोत्रजिह्वे न च घ्राणनेत्रे।
न च व्योमभूमिर्न तेजो न वायुः,
चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम्॥
हिंदी अर्थ:
मैं न मन हूं, न बुद्धि, न अहंकार और न ही चित्त।
मैं न कान हूं, न जीभ, न नाक और न आंखें।
मैं न आकाश हूं, न पृथ्वी, न अग्नि और न वायु।
मैं तो केवल चैतन्य स्वरूप आनन्द हूं — मैं शिव हूं, मैं शिव हूं।
शरीर और तत्वों से इंकार
पहले श्लोक में आत्मा का न तो मन है, न बुद्धि, न इन्द्रियाँ और न ही पंचमहाभूत। आत्मा इन सब से परे है।
तात्पर्य: हम अपने शरीर, इंद्रियों या विचारों से नहीं हैं। हम वो चैतन्य हैं जो इन्हें देखता है। जब यह पहचान हो जाती है, तब आत्मा का असली स्वरूप प्रकट होता है।
श्लोक 2:
न च प्राणसंज्ञो न वै पंचवायुः
न वा सप्तधातुः न वा पञ्चकोशः।
न वाक्पाणिपादौ न चोपस्थपायू,
चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम्॥
हिंदी अर्थ:
मैं प्राण नहीं हूं, न ही पांच वायु (प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान)।
मैं न सप्त धातु हूं और न ही पांच कोश।
न वाणी हूं, न हाथ, न पैर और न ही जननेंद्रिय व गुदा।
मैं शुद्ध चैतन्य, आनन्द स्वरूप शिव हूं।
शरीर के घटकों से मुक्ति
दूसरे श्लोक में प्राण, सप्तधातु, वाणी, अंग आदि से आत्मा का भेद स्पष्ट किया गया है।
तात्पर्य: हमारी अस्मिता (identity) न तो शरीर की रचना में है, न उसकी क्रियाओं में। आत्मा स्वतंत्र सत्ता है।
श्लोक 3:
न मे द्वेषरागौ न मे लोभमोहौ
मदो नैव मे नैव मात्सर्यभावः।
न धर्मो न चार्थो न कामो न मोक्षः,
चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम्॥
हिंदी अर्थ:
मुझे न राग-द्वेष है, न लोभ और न मोह।
न अहंकार है, न ही किसी से ईर्ष्या है।
मैं न धर्म हूं, न अर्थ, न काम और न मोक्ष।
मैं शुद्ध चैतन्य और आनन्द स्वरूप शिव हूं।
भावनाओं और धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष से परे
यह श्लोक बताता है कि आत्मा का स्वरूप भावनाओं और जीवन के लक्ष्यों से भी अलग है।
तात्पर्य: जब हम शुभ-अशुभ, सुख-दुख, कामनाओं और मोक्ष तक को आत्मा से अलग देखते हैं, तभी पूर्ण आत्मज्ञान संभव होता है।
श्लोक 4:
न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दु:खं
न मन्त्रो न तीर्थं न वेदा न यज्ञाः।
अहं भोजनं नैव भोज्यं न भोक्ता,
चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम्॥
हिंदी अर्थ:
मैं न पुण्य हूं, न पाप; न सुख हूं और न दुख।
न मैं कोई मंत्र हूं, न तीर्थ, न वेद और न यज्ञ।
न मैं भोजन हूं, न खाने योग्य वस्तु और न ही खाने वाला।
मैं चैतन्य स्वरूप, आनन्द रूप शिव हूं।
कर्म, फल और यज्ञ से विमुक्त
चौथे श्लोक में कहा गया है कि आत्मा न पुण्य है, न पाप, न कोई अनुष्ठान, न ही भोज्य वस्तु।
तात्पर्य: हम जो कुछ भी करते हैं, वह शरीर और मन से होता है। आत्मा तो केवल साक्षी है।
श्लोक 5:
न मे मृत्युशंका न मे जातिभेदः
पिता नैव मे नैव माता न जन्मः।
न बन्धुर् न मित्रं गुरुर्नैव शिष्यः,
चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम्॥
हिंदी अर्थ:
मुझे मृत्यु का भय नहीं है, न जाति का भेद है।
मैं न पिता हूं, न माता, न ही मेरा कोई जन्म है।
न कोई बंधु है, न मित्र, न गुरु और न ही शिष्य।
मैं केवल चैतन्य और आनन्द स्वरूप शिव हूं।
मृत्यु और सामाजिक पहचान से बाहर
इस श्लोक में आत्मा की अमरता और सामाजिक संबंधों से असंबंधता दिखाई गई है।
तात्पर्य: असली “मैं” न कभी जन्म लेता है, न मरता है। माता-पिता, जाति, मित्र, गुरु — ये सभी सामाजिक रचनाएं हैं, आत्मा नहीं।
श्लोक 6:
अहं निर्विकल्पो निराकाररूपो
विभुर्व्याप्य सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम्।
न चासङतं नैव मुक्तिर्न मेयः,
चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम्॥
हिंदी अर्थ:
मैं निर्विकल्प हूं, निराकार हूं, सर्वत्र व्यापक हूं।
मैं समस्त इंद्रियों में व्याप्त हूं।
मैं न बंधन हूं, न मुक्ति — मैं तो जानने योग्य नहीं हूं।
मैं चैतन्य स्वरूप, आनन्द रूप शिव हूं।
परम ब्रह्म से एकता
अंतिम श्लोक में आत्मा को निराकार, निर्विकल्प, सर्वव्यापक बताया गया है।
तात्पर्य: यह वह बिंदु है, जहां आत्मा और परमात्मा में कोई भेद नहीं रह जाता — “अहं ब्रह्मास्मि” की अनुभूति।
“निर्वाण षट्कम्” केवल आध्यात्मिक साधना के लिए नहीं, बल्कि जीवन में मानसिक शांति, अहंकार से मुक्ति, और स्वयं की सही पहचान के लिए अत्यंत उपयोगी है।
- यह हमें बताता है कि हम अपने विचारों और शरीर नहीं हैं।
- यह आत्म-साक्षात्कार की ओर प्रेरित करता है।
- मानसिक तनाव, डर, अहंकार और मोह से दूर करता है।
- आत्मा की स्वतंत्रता और व्यापकता का बोध कराता है।
ध्यान व जप में उपयोग
इस स्तोत्र का जप और ध्यान आत्मचिंतन के लिए अत्यंत प्रभावशाली है। विशेषतः जब मन भ्रमित हो, जब व्यक्ति पहचान की खोज में हो — तब यह मंत्र आत्मा को स्थिरता प्रदान करता है।
आदि शंकराचार्य अद्वैत वेदांत के प्रणेता थे। उनके अनुसार, ब्रह्म और आत्मा एक ही हैं। “निर्वाण षट्कम्” उसी अद्वैत भावना को प्रकट करता है।
क्या है अद्वैत?
अद्वैत (Advaita) संस्कृत शब्द है, जिसका अर्थ होता है “द्वैत नहीं” यानी “द्वितीयता का अभाव”। यह शब्द “अ” (नकारात्मक उपसर्ग) और “द्वैत” (द्वयत्व या दोपनता) से मिलकर बना है। सरल शब्दों में, अद्वैत का मतलब है — “एकत्व”, “अभिन्नता”, “अविभाज्यता”।अद्वैत वेदांत एक दार्शनिक परंपरा है, जिसकी स्थापना आदि शंकराचार्य ने की थी। इसके अनुसार:
“ब्रह्म सत्यं, जगन्मिथ्या, जीवो ब्रह्मैव नापरः।”
(ब्रह्म ही सत्य है, यह जगत माया है, और जीव स्वयं ब्रह्म है।)
इसका अर्थ है ब्रह्म (परम सत्ता) ही एकमात्र सत्य है। यह संसार जो हमें दिखाई देता है, वह माया (भ्रम, अस्थायी) है। जो ‘जीव’ हम समझते हैं — वह वास्तव में ब्रह्म का ही एक रूप है।
अद्वैत के मुख्य सिद्धांत
ब्रह्म ही एकमात्र वास्तविकता है:
वह निराकार, निरगुण, अजर-अमर और सर्वव्यापक है।
जीव और ब्रह्म अलग नहीं हैं:
आत्मा (हमारी वास्तविक सत्ता) और ब्रह्म एक ही हैं, जैसे लहर और समुद्र — दिखते अलग हैं, पर हैं एक ही जल तत्व।
संसार माया है:
यह संसार परिवर्तनशील है, इसलिए यह असत्य नहीं, पर स्थायी सत्य भी नहीं है। यह ब्रह्म की शक्ति माया के कारण अनुभव होता है।
- अद्वैत कहता है कि हम जो अपने को मानते हैं — शरीर, नाम, जाति, धर्म, रिश्ते — वह सब अस्थायी है।
- हमारी असली पहचान है: शुद्ध चेतना, चैतन्य, जो न जन्म लेता है, न मरता है।
- जब हम यह अनुभव कर लेते हैं कि “मैं ब्रह्म हूँ” (अहं ब्रह्मास्मि), तब मुक्ति प्राप्त होती है।
सकते हैं. इस मंत्र को आप संलग्न विडियो पर सुन भी सकते हैं.
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