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पोला पर्व: बैलों की पूजा का दिन

भाद्रपद मास की अमावस्या तिथि को मनाया जाने वाला यह पोला त्योहार, खरीफ फसल के द्वितीय चरण का कार्य (निंदाई गुड़ाई) पूरा हो जाने म नाते हैं। फसलों के बढ़ने की खुशी में किसानों द्वारा बैलों की पूजन कर कृतज्ञता दर्शाने के लिए भी यह पर्व मनाया जाता है।

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किसी भी राज्य की सार्थक पहचान उनकी संस्कृति से होती है। जिसमें छत्तीसगढ़ राज्य भारत देश का एक मात्र ऐसा राज्य है जो पूर्णतः कृषि कार्य प्रधान राज्य है। यहां के निवासी पूरे वर्ष भर खेती कार्य में लगे रहते है। धान की खेती यहां की प्रमुख फसल है।

हमारे देश में कृषि से जुड़ी हर बात को खास महत्व दिया जाता है। चाहे वह एक निर्जीव वस्तु हो या फिर कोई पशु। जैसे नाग देवता के लिए हम नाग पंचमी मानते हैं, ठीक वैसे ही बैलों के लिए पोला मनाया जाता है। इस पर्व को कई लोग पोला-पीठोरा के नाम से भी जानते हैं। प्राचीन समय से ही कृषि के लिए भूमि को तैयार करने में बैलों का सहयोग लिया जाता है। और आज भी कई गाँव में बैलों की सहायता से ही खेती के बहुत सारे कार्य पूर्ण किए जाते है।

पोला-पर्व

पर्व-त्योहार की श्रृंखला में एक महत्वपूर्ण त्योहार है पोला इसे छत्तीसगढी में पोरा भी कहते हैं।

भाद्रपद मास की अमावस्या तिथि को मनाया जाने वाला यह पोला त्योहार, खरीफ फसल के द्वितीय चरण का कार्य (निंदाई गुड़ाई) पूरा हो जाने म नाते हैं। फसलों के बढ़ने की खुशी में किसानों द्वारा बैलों की पूजन कर कृतज्ञता दर्शाने के लिए भी यह पर्व मनाया जाता है।

पोला पर्व की पूर्व रात्रि को गर्भ पूजन किया जाता है। ऐसा माना जाता है कि इसी दिन अन्न माता गर्भ धारण करती है। अर्थात धान के पौधों में दुध भरता है। इसी कारण पोला के दिन किसी को भी खेतों में जाने की अनुमति नहीं होती।

रात मे जब गांव के सब लोग सो जाते है तब गांव का पुजारी-बैगा, मुखिया तथा कुछ पुरुष सहयोगियों के साथ अर्धरात्रि को गांव तथा गांव के बाहर सीमा क्षेत्र के कोने कोने मे प्रतिष्ठित सभी देवी देवताओं के पास जा-जाकर विशेष पूजा आराधना करते हैं। यह पूजन प्रक्रिया रात भर चलती है।

इनका प्रसाद उसी स्थल पर ही ग्रहण किया जाता है घर ले जाने की मनाही रहती है। इस पूजन में ऐसा व्यक्ति नहीं जा सकता जिसकी पत्नी गर्भवती हो। इस पूजन में जाने वाला कोई भी व्यक्ति जूते-चप्पल पहन कर नहीं जाता फिर भी उसे कांटे-कंकड़ नहीं चूभते या शारीरिक कष्ट नहीं होता।

सूबह होते ही गृहिणी घर में गुडहा चीला, अनरसा, सोहारी, चौसेला, ठेठरी, खूरमी, बरा, मुरकू, भजिया, मूठिया, गुजिया, तसमई आदि छत्तीसगढी पकवान बनाने में लग जाती है। किसान अपने गौमाता व बैलों को नहलाते धोते हैं। उनके सींग व खूर में पेंट या पॉलिश लगाकर कई प्रकार से सजाते हैं। गले में घुंघरू, घंटी या कौड़ी से बने आभूषण पहनाते हैं। तथा पूजा कर आरती उतारते हैं।

अपने बेटों के लिए कुम्हार द्वारा मिट्टी से बनाकर आग में पकाए गए बैल या लकड़ी के बैल के खिलौने बनाए जाते हैं। इन मिट्टी या लकड़ी के बने बैलों से खेलकर बेटे कृषि कार्य तथा बेटियां रसोईघर व गृहस्थी की संस्कृति व परंपरा को समझते हैं।

बैल के पैरों में चक्के लगाकर सुसज्जित कर उस के द्वारा खेती के कार्य समझाने का प्रयास किया जाता है।

बेटियों के लिए रसोई घर में उपयोग में आने वाले छोटे-छोटे मिट्टी के पके बर्तन पूजा कर के खेलने के लिए देते हैं। पूजा के बाद भोजन के समय अपने करीबियों को सम्मानपूर्वक आमंत्रित करते हुए एक-दूसरे के घर जाकर भोजन करते हैं।

शाम के समय गांव की युवतियां अपनी सहेलियों के साथ गांव के बाहर मैदान या चौराहों पर (जहां नंदी बैल या साहडा देव की प्रतिमा स्थापित रहती है) पोरा पटकने जाते हैं। इस परंपरा मे सभी अपने-अपने घरों से एक-एक मिट्टी के खिलौने को एक निर्धारित स्थान पर पटककर-फोड़ते हैं। जो कि नंदी बैल के प्रति आस्था प्रकट करने की परंपरा है। युवा लोग कबड्डी, खोखो आदि खेलते मनोरंजन करते हैं।

इस पर्व को छत्तीसगढ़ के अलावा महाराष्ट्र, हिमाचलप्रदेश, उत्तराखंड, असम, सिक्किम तथा पड़ोसी देश नेपाल में भी मनाया जाता है। वहां इसे कुशोत्पाटिनी या कुशग्रहणी अमावस्या, अघोरा चतुर्दशी व स्थानीय भाषा मे डगयाली के नाम से मनाया जाता है।

कुशग्रहणी या कुशोत्पाटिनी अमावस्या इसलिए कहा गया है क्योंकि इस दिन वर्ष भर किए जाने वाले धार्मिक कार्यों तथा श्राद्ध आदि कार्यों के लिए कुश (एक विशेष प्रकार की घास, जिसका उपयोग धार्मिक व श्राद्ध आदि कार्यों में किया जाता है) एकत्रित किया जाता है।

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