विघ्नहर्ता गणेश जी के जन्म की कथा
एकदंति हाथी के सर के कारन ही गणेश जी भी एकदन्त कहलाये।
हिन्दू पंचांग के अनुसार भाद्रपद माह की शुक्ल पक्ष चतुर्थी को भगवान गणेश का जन्म हुआ था।
उनके जन्मदिवस को ही गणेश चतुर्थी कहा जाता है।
आज की कथा है भगवान् गणेश के बारे मे। गणेश जी जो विघ्नहर्ता है और वे सभी के दुःख दूर करते हैं । आज हम इन्ही के जन्म की रोचक कथा सुनते है।
भगवान् गणेश जी के जन्म के बारे में दो कथाएं प्रचलित हैं।
पहली कथा का वर्णन वराहपुराण में मिलता है। इसके अनुसार, भगवान् गणेश जी का निर्माण शिव जी ने पंचतत्वों से किया था।
दूसरी कथा का वर्णन शिव पुराण में है। शिव पुराण के अनुसार माता पार्वती ने अपने उबटन के चन्दन से गणेश जी की रचना की थी।
आज हम इसी कथा को विस्तार से जानेंगे।
पार्वती जी शिव जी से विवाह के पश्चात उनके साथ बड़ा ही आनंदमय जीवन व्यतीत कर रही थी। शिव जी के गण पार्वती जी की सेवा में भी जुटे हुए थें। एक बार पार्वती जी स्नान करने जा रही थीं तो उन्होंने शिव के गण नंदी को द्वार पर पहरा देने को कहा और कहा की किसी को भी घर के अंदर मत आने देना। पार्वती जी स्नान करने चली गयीं। कुछ ही समय पश्चात शिव जी आएं। अब नंदी दुविधा में पड़ गया की अब घर के स्वामी को ही अंदर कैसे न जाने दूँ। इस सोच विचार के बीच शिव जी अंदर चले गएँ और सीधे स्नानघर तक पहुँच भी गए।
माता पार्वती शिव जी को देखकर बड़ी ही लज्जित हुईं और उनके तनिक क्रोध भी आया की नंदी ने उनकी बात नहीं मानी।
पार्वती जी नाराज हो रही थीं लेकिन शिव जी को हंसी आ रही थी। उन्होंने बात को हंस कर टाल दिया।
पार्वती जी को ये बात खटक गयी। उन्होंने मन ही मन सोचा की मैं ऐसा गण रखूंगी जो सिर्फ मेरी आज्ञा का ही पालन करेगा।
उन्होंने अपने उबटन के चन्दन से एक बालक की रचना की। बालक बहुत ही सुन्दर बन पड़ा था। पार्वती जी ने उस बालक को स्नेह से देखा और खूब सारा आभूषण देकर कहा की अब तुम मेरे पुत्र हो। पार्वती जी ने उस बालक को अस्त्र स्वरुप एक दंड भी दिया और उसे द्वार पर लेकर आईं और बोली की बिना मेरी अनुमति के किसी को अंदर मत आने देना।
कुछ देर के बाद भगवान् शिव घर आये तो बालक ने उन्हें भी घर में जाने से रोक दिया। अब ये बालक तो किसी को जानता नहीं था। उसे तो सिर्फ अपनी माता की आज्ञा माननी थी। शिव जी ने बालक को डांटा और अंदर जाने लगे तो बालक ने शिव जी पर ही अपने दंड से प्रहार कर दिया। शिव जी थोड़े क्रोधित तो हुए लेकिन एक बालक से युद्ध करना उन्हें ठीक न लगा। उन्होंने अपने गणो को बुलाकर कहा की इस बालक को भगाओ यहाँ से।
सभी कोई, भगवान् शिव, माता पार्वती, बालक तथा गण, सभी असमंजस में थे। भगवान् शिव जानते थें की बालक छोटा है और गण ढेर सारे। लेकिन बालक ने उनपर प्रहार किया था उसे दंड देना जरुरी था। पार्वती को लग रहा था की अगर उन्होंने बालक को रोका तो उनकी बड़ी हेठी हो जायेगी। बालक भी जनता था की जिसे उसने रोका, वह उसके पिता है, लेकिन वह माता की आज्ञा मानने को विवश था। गण तो शिव के गण ही थें उन्हें तो भगवन शिव की आज्ञा माननी ही थी।
अब माता के पुत्र और पिता के गणो के बीच युद्ध छिड़ गया।
बालक बहुत बलशाली था। उसने सब गणो को मार कर भगा दिया और वापस द्वार पर जा कर खड़ा हो गया। सारे देवलोक में ये बात फ़ैल गयी। सारे देवों ने ये बात सुनी तो शिव जी के पास उनकी सहायता हेतु पहुंचे। विचार विमर्श करने के बाद ब्रह्मा जी अनेक ऋषि मुनियों के साथ साधू वेश में बालक को समझाने आये। जैसे ही वे पास आये बालक दौड़ कर उनपर झपट पड़ा। ब्रह्मा जी और ऋषि मुनि बेचारे वापस लौट आये।
अब शिव जी ने अपने पुत्र कार्तिकेय और देवराज इंद्र बुलाकर कहा की जाओ और उस बालक का नाश कर दो। इन्द्र के साथ देव और कार्तिकेय के साथ गणो की सेना ने बालक को चारो और से घेर लिया। परन्तु बालक ने डट कर सामना किया। भयंकर युद्ध छिड़ गया। पार्वती जी ये जानकार आग बबूला हो गयी की एक बालक को हराने के लिए सारी देव सेना लग गयी है।
पार्वती जी ने अपने तप बल से दुर्गा और काली नाम की दो शक्तियां उत्पन्न की। पार्वती जी ने शक्तियों को अपने पुत्र की मदद करने को कहा। अब सारे देवता हारने लगे । अब कोई उपाय न था। वे बेचारे वहाँ से भाग आये।
भगवान् शिव और विष्णु जी एक साथ मिल कर ही बालक से युद्ध में जीत सकते थें। बालक ने दुर्गा और काली की शक्तियों को अपने में समाहित कर लिया और वह दोनों पर टूट पड़ा। बड़ी मुश्किल से किसी तरह भगवान् शिव ने अपने त्रिशूल से बालक का शीश काट दिया।
देवताओं में ख़ुशी की लहार दौड़ पड़ी लेकिन शिव जी चिंता में पड़ गए। वे जानते थें की अब पार्वती बहुत क्रोधित होंगी। क्रोध में वह सब का नाश कर देंगी । अब सारे देवता शिव जी के पास दौड़ पड़े की किसी तरह माता पार्वती को शांत करना ही होगा।
शिव जी ही इसका निदान कर सकते थें। वे ही काल के देवता थें। उन्होंने गणो को आदेश दिया की उत्तर दिशा की ओर जाओ और जो भी पहला जीव मिले उसका सर काट लाओ।
उत्तर दिशा में, मार्ग में सबसे पहले उन्हें एकदन्ति हाथी मिला वे उसका ही सर काट के ले आये। उस हाथी का सर ही बालक के धड़ पर जोड़ दिया गया। बालक जीवित हो उठा। देवता बालक को माता पार्वती के पास ले कर आएं। लेकिन माता पार्वती को पूर्ण संतोष नहीं हुआ। उन्होंने भगवान् शिव से बालक को आशीर्वाद देने और उसका नामकरण करने को कहा।
तब भगवान् शिव जी ने कहाँ की ये बालक मेरा दूसरा पुत्र होगा। इसने बालपन में ही अद्भुत वीरता दिखाई है इसलिए ये अनंत काल तक मेरे गणो का प्रमुख रहेगा। गणो के प्रमुख होने के कारन ये विघ्नहर्ता गणेश कहलायेगा। हर शुभ कार्य करने से पहले इसका आशीर्वाद लिया जाएगा।
इसके बाद भगवान् शिव, माता पार्वती अपने दोनों पुत्रो के साथ कैलाश पर्वत पर रहने लगे।
ये थी कहानी विघ्नहर्ता गणेश के जन्म की।
एकदंति हाथी के सर के कारन ही गणेश जी भी एकदन्त कहलाये।
हिन्दू पंचांग के अनुसार भाद्रपद माह की शुक्ल पक्ष चतुर्थी को भगवान गणेश का जन्म हुआ था।
उनके जन्मदिवस को ही गणेश चतुर्थी कहा जाता है।

अब
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इस कथाओं के बारे में फिर कभी।
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